उत्तराखंड में पाँच प्रयाग हैं- विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग और देवप्रयाग। यह सभी स्थान पवित्र नदियों के संगम पर स्थित हैं। यानी प्रयाग विशेषण है न कि संज्ञा। प्रयाग पवित्र यज्ञभूमि के रूप में कल्पित है। गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम का प्रयाग तीर्थराज है। इलाहाबादी कवि बोधिसत्व ऐतिहासिक और पौराणिक प्रमाणों के आधार पर बार-बार यही बता रहे हैं कि प्रयाग नाम का कोई प्राचीन नगर नहीं था, जिसका नाम अकबर ने बदला। अकबर ने संगम पर एक एक किला और दो बाँध बनाकर एक नए नगर की नींव डाली थी जिसे पहले इलावास और बाद में इलाहाबाद कहा जाने लगा। बहरहाल, बहस जारी है और इस चौथे लेख में बोधिसत्व ने स्वयं राम को प्रमाण बना लिया है। उनका सीधा तर्क यह है कि अगर प्रयाग कोई नगर होता तो वनवास के समय राम वहाँ जाते ही नहीं (भारद्वाज आश्रम जाने का वर्णन है जो आज भी इलाहाबाद में है)। बोधिसत्व का साफ़ कहना है कि या तो कौशल्यानंदन राम वचनभंग के अपराधी हैं या फिर प्रयाग नगर नहीं था- संपादक
मैं प्रयाग को नगर नहीं मानता। क्योंकि प्रयाग को नगर मानता हूँ तो मेरे राम लल्ला बेइमान और मर्यादाहीन हो जाते हैं। अगर रामपथ के स्थान श्रृंगवेरपुर, प्रयाग और चित्रकूट या आगे जो भी स्थान आए वे नगर रहे होते तो राम के लिए सब के सब स्वतः निषिद्ध या वर्ज्य क्षेत्र हो जाते थे। अयोध्या त्यागने के बाद राम लल्ला वनवास अवधि तक मात्र वनक्षेत्र में ही प्रवेश के अधिकारी थे। किसी भी नगर तो क्या ग्राम प्रवेश से भी वचन भंग तय था।
इसीलिए राम न वालि की किष्किंधा में गए न रावण की लंका में। वे चौदह वर्ष आश्रम-आश्रम भटकते रहे। स्वयं न जाकर लक्ष्मण को सुग्रीव को धमकाने भेजा। जब वो तारा और राज्य पाकर सीता की खोज से विरत हो गया था। राम किसी नगर में चरण रख ही नहीं सकते थे।
या प्रयाग को एक प्राचीन नगर सिद्ध करने के लिए हम मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को पथभ्रष्ट पुरुषोत्तम मान लें। हम मान लें कि आज के भक्त और प्रयाग को नगर मानने वाले सत्य हैं या रघुवंशी भगवान राम। दोनों का सत्य होना भी राम को धर्मराज युधिष्ठिर की तरह अर्धसत्य की दशा में ला खड़ा करेगा। उनको कलंकित करेगा।
हमारे लिए यह कल्पना करना भी असंभव है कि माता कैकेयी और पिता दशरथ को दिए वचन श्रीराम के लिए प्रयाग आते ही व्यर्थ हो गए थे। या प्रयाग नगर का भ्रमण कराकर तथाकथित प्रयाग भक्त राम के जीवन और अटल व्रती चरित को एक अवसरवादी व्यक्ति में बदल देने पर आमादा हैं।
आप सभी विद्वान लोग प्राचीन भारत की वन गमन की शर्तों को रामायण और महाभारत दोनों में देख सकते हैं। वन-जंगल नदी तट तीर्थ सरोवर आश्रम गुरुकुल के अतिरिक्त किसी स्थापित नगर में न निवास होगा न प्रवेश। तभी वनवास पूर्ण होगा। वन वह क्षेत्र था जहाँ स्थाई भवन न बने हों। आज के सेकेंड होम की तरह एक घर वन में की संकल्पना अकल्पनीय थी।
राम और उनका खानदान जिसे रघुवंश के रूप में अखिल भारत और शेष विश्व मानता है, वह अपनी वचनबद्धता के लिए ही जाना जाता है। प्रयाग को नगर मानते ही रघुवंश पर बट्टा लगता है। मनु और सत्यहरिश्चंद्र का वंश कलंकित होता है। भगीरथ का वंशज राम नगर प्रवेश ट
का दोषपूर्ण काम कैसे कर सकता है। राम ऐसे प्रतीक पुरुष हैं जो पिता के वचन की रक्षा के लिए आन पर राज्याभिषेक के जल और मुकुट को त्याग कर तपसी बन कर निकल पड़ते हैं। वो किसी भी तरह प्रयाग नगर में पैर नहीं धर सकते थे।
मैं भक्तों से अधिक राम को जानता हूँ, वह कौशल्यानंदन इतने नगर भ्रमणोत्सुक न थे कि कुल और स्वयं की मानहानि पर उतर आएं।
राम सौ जनम प्रयाग न जाते अगर वह नगर होता। मेरी बात पर किसी रामायण मर्मज्ञ और व्यख्याकार से वार्ता की जा सकती है। हाँ आज के मौकापरस्त लोगों का अपना कोई वचनभंग करनेवाला अवसरवादी राम हो तो यह और बात होगी। तब भारत में धर्म मर्म की रक्षा के लिए राम दुहाई बंद करके किसी और राम की खोज करनी होगी!
अब प्रयाग को नगर सिद्ध करने के लिए या तो राम को वचन तोड़ने वाला पुरुष माना जाए या यह कि भरद्वाज मुनि के समय का प्रयाग नगरीय न था। आबादी न थी। केवल आश्रम और तीर्थ था।
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